राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं

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कालीबंगा- (हनुमानगढ़):-

  • कालीबंगा की प्रमुख वेदिकाऐं- कालीबंगा से सात अग्निवेदिकाएं/सात हवनकुण्ड/यज्ञवेदिकाएं मिली हैं, जिनमें एक चित्र में दिखाया गया हैं कि एक मनुष्य पशु को लेकर आगे बढ़ रहा हैं। इसके पश्चात अग्निवेदिकाओं में हाथ डाले तो वहाँ से पशुओं की हड्डियां मिली हैं इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि प्रथम बार बलि देने की जानकारी भी यहीं से मिली हैं, लेकिन यहाँ से किसी प्रकार के मन्दिर के साक्ष्य नहीं मिले हैं। यहाँ से लिंग, योनि व देवता की कोई मूर्ति तथा मुद्राओं पर किसी भी देवता का अंकन नहीं हैं। स्वास्तिक चिन्ह सिन्धु घाटी सभ्यता की ही देन हैं। कालीबंगा से खोपड़ी में छिद्र मिले हैं, इन छिद्रों से हाइड्रोस्फलीज रोग की जानकारी मिली हैं तथा प्रथम बार शल्य चिकित्सा की जानकारी भी कालीबंगा से मिली हैं।
  • कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ काली चूड़ियां होता हैं, कालीबंगा सभ्यता का विकास हनुमानगढ़ में वर्तमान घग्घर तथा प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे सूरतगढ़- हनुमानगढ़ मार्ग पर हुआ था।कालीबंगा की खोज 1951- 1952 में अम्लानन्द घोष ने की थी, तथा इसके उत्खनन का कार्य 1961-62 में बृजवाली लाल तथा बालकृष्ण थापड़ ने किया था।कालीबंगा आद्यऐतिहासिक काल की देन हैं, तथा सी- 14 रेडियो प्रणाली के अनुसार इसका कार्यकाल 2300 ई. पू. से 1750 ई. पू. था। कालीबंगा एक त्रिस्तरीय संस्कृति (प्राक्हड़प्पा, हड़प्पा समकालीन तथा पश्चरय हड़प्पा) हैं।कालीबंगा एक कांस्य युगीन (तांबा $ टिन), नगरीय सभ्यता तथा मातृसतात्मक सभ्यता के साथ-साथ एकल परिवार प्रणली वाली सभ्यता थी।राज्य सरकार द्वारा कालीबंगा से प्राप्त पुरावशेषों के संरक्षण हेतु वहाँ एक संग्रहालय की स्थापना 1985-86 में की गई हैं। यह सभ्यता 5 स्तरों तथा 2 भागों में बंटी हुई थी- दुर्गीकृत व अदुर्गीकृत।कालीबंगा की सड़कें आपस में समकोण पर काटती हैं- इस सड़कों की पद्धति को जाल पद्धति, चेश बॉर्ड पद्धति, ग्रीड पद्धति तथा ऑक्सफॉर्ड पद्धति कहा जाता हैं।

कालीबंगा की मुहरेें

  • कालीबंगा की मुहरों पर अक्षर पर अक्षर खुदा हुआ है जिसके कारण यहाँ की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई हैं। इस सभ्यता की लिपि बुस्तोफीदन/सैन्धव/चित्राकार/सर्पाकार/गौमूत्रिका थी। कालीबंगा एक आद्यऐतिहासिक काल की देन हैं। इस काल में लिपि तो थी लेकिन उसको पढ़ा नहीं गया हैं। यहाँ से बेलनाकार मुहरें मेसोपोटामिया सभ्यता की मिली हैं।

कालीबंगा से मिले अन्य महत्वपूर्ण अवशेष-

  • कालीबंगा से नगर निगम की जानकारी मिलती हैं यह जानकारी मकानों, सड़कों की नालियां तथा कूड़ेदान सफाई व्यवस्था की जानकारी से अवगत होती हैं। कालीबंगा से एक महिला की मुद्रा मिली हैं जिसे कुमारदेवी की मुद्रा कहा गया हैं। कालीबंगा में मकानों के दरवाजे पीछे की ओर खुलते थे तथा कालीबंगा के लोग शान्तप्रिय थे। यहाँ के भवनों में आरम्भ में कच्ची ईंटों तथा बाद में पक्की ईंटों का प्रयोग हुआ हैं तथा भवनों में प्रयुक्त ईंटों का अनुपात 4 : 2 : 1 या 30 : 15 : 7.5 (लम्बाई, चैड़ाई तथा उंचाई) हैं। ईंटों की चुनाई के बाद ईंटों पर मिट्टी के गारे का प्लास्तर किया गया हैं तथा मकानों में चार-पांच कमरे व एक दालान होता था। मिट्टी के बर्तनों के घड़े, लौटे, थालियां, प्याले आदि जिन पर मछली, बतख, हिरण व कछुआ की आकृतियां अलंकृत हैं। यहाँ से मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की मुहरें, चाकू, तांबे के औजार, कांच की मणियां, हाथीदांत का कंघा, मूंगे मनके तथा सीपों के आभूषण, गोल कुएं के साक्ष्य मिले हैं। कालीबंगा में नालियों का निर्माण लकड़ी से हुआ हैं तथा यह सिन्धु घाटी सभ्यता का एकमात्र ऐसा स्थान हैं जहां से लकड़ी की नालियों के अवशेष मिले हैं। बाद में कालीबंगा में भी पक्की ईंटों से नालियों का निर्माण हुआ था। कालीबंगा के भवनों की छत पर जाने हेतु सीढ़ीयों के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ के भवनों की दीवारों में दरारें मिली हैं जिससे यह अनुमान लगाया जाता हैं कि उस समय भी भूकम्प आते थे। यहाँ के भवनों की छतें लकड़ी की बल्लियों व मिट्टी से पाटी जाती थी। कालीबंगा में हल से जुते हुए खेतों के निशान मिले हैं तथा संयुक्त फसल के प्रमाण मिले हैं, संयुक्त फसल में यहाँ पर सरसों, गेंहू, जौ व चना बोई जाती थी। यहाँ से मिश्रित फसल की भी जानकारी मिली हैं, मिश्रित फसल उस फसल को कहते हैं जिसमें कृषि के साथ- साथ पशुपालन होता है। कालीबंगा से ऊंट पालने की जानकारी मिली हैं। स्‍मरणीय तथ्‍य – घोड़े पालने की जानकारी गुजरात के सुरकोटड़ा से मिली हैं। विशेष- कालीबंगा सिन्धु घाटी सभ्यता की तीसरी राजधानी थी, तथा यह स्वतन्त्र भारत में खोजा गया पहला पुरातात्विक स्थल था। सरस्वती नदी के प्रवाह क्षेत्र को संस्कृत में ‘‘बहुघन्यादायक‘‘ कहा गया हैं। सरस्वती नदी को ऋग्वेद में नदीतमा कहा गया हैं तथा यह नदी ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी थी। सरस्वती नदी बहती थी कि नहीं बहती थी इसका वैज्ञानिक प्रमाण काजरी, जोधपुर (सैन्ट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट या केन्द्रीय शुष्क अनुसंधान केन्द्र) ने दिया था। यह नदी वर्तमान में लुप्त हो चुकी हैं तथा इस नदी के स्थान पर वर्तमान में जैसलमेर में 60 मीटर चैड़ी एक भूगर्भिक जल पट्टी हैं जिसे लाठी सीरीज कहा जाता हैं। इस लाठी सीरीज में सेवण घास पाई जाती हैं, सेवण घास का स्थानीय नाम लीलोण हैं तथा इस घास का वानस्पतिक नाम लसियुरूस सिडीकुस हैं। यह घास मरूस्थल के विस्तारण पर रोक लगाती हैं। सरस्वती नदी का अवशेष घग्घर नदी हैं जिसका उद्गम हिमाचल प्रदेश के शिवालिक पर्वतमाला की कालका की पहाड़ी से होता हैं। इस नदी को नट/पाट/नाली/मृत/सोतर आदि नामों से जाना जाता हैं। इस नदी को ‘राजस्थान का शोक’ भी कहते हैं। यह नदी उफान पर होने की स्थिति में पाकिस्तान के फोर्ट अब्बास तक जाती हैं। इस सभ्यता के पतन का कारण प्राकृतिक प्रकोप हैं। के. यू. आर. केनेड़ी के अनुसार इस सभ्यता के पतन का कारण संक्रामक रोग हैं।

यहाँ पर अन्त्येष्टी तीन प्रकार से होती थी-

  • आंशिक शवादान
  • कलश शवादान (सर्वाधिक)
  • पूर्ण शवादान (पुर्नजन्म का अनुमान)।
  • पूर्ण शवादान में व्यक्ति को दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं सहित दफनाया जाता था तथा शव के पैर दक्षिण की ओर होते थे। स्‍मरणीय तथ्‍य – कालीबंगा से अण्डाकार कब्र के अवशेष मिले हैं, जिन्हें चिरायु कब्र भी कहा गया हैं।

गणेश्वर सभ्यता- नीम का थाना, (सीकर)



  • सीकर का प्राचीन नाम वीर भान का बास था। नीम का थाना तहसील में कान्तली/कान्टली नदी के किनारे गणेश्‍वर सभ्यता का विकास हुआ था। गणेश्वर सभ्यता की तिथि 2800 ई. पू. निर्धारित की गई हैं, गणेश्वर की खोज 1972- 76 में रतनचन्द्र अग्रवाल व बी. एन. मिश्र ने की थी। इस सभ्यता को ताम्रजननी सभ्यता के नाम से भी जाना जाता हैं।

गणेश्‍वर सभ्‍यता से मिले अन्‍य महत्वपूर्ण अवशेष

  • गणेश्वर से एक तांबे का बाणाग्र मिला हैं जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यहाँ के लोग शिकार करते थे अर्थात् यहाँ के लोग शाकाहारी व मांसाहारी (सर्वाहारी) थे। यहाँ से दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुएं थाली, कटोरा, चम्मच, गिलास, सुई आदि प्राप्त हुई हैं। गणेश्‍वर सभ्यता एक पूर्व हड़प्पाकालीन तथा ताम्रयुगीन सभ्यता भी कहलाती हैं। इस सभ्यता के भवनों का निर्माण पत्थरों से हुआ है। यहाँ से एक मछली पकड़ने का कांटा मिला हैं जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि कान्तली नदी नित्यवाही थी। गणेश्‍वर सभ्यता से मृदपात्रों में प्याले, तष्तरियां व कुण्डियां मिली हैं। यहाँ से प्राप्त मृदपात्र कृपिषवर्णी/ ‘‘कृथि मृद्पात्र‘‘ कहलाते हैं। यह राजस्थान का एकमात्र ऐसा पुरातत्व स्थल हैं जहां से पत्थर से बने बांधों के साक्ष्य मिले हैं। सम्पूर्ण सिन्धु घाटी सभ्यता में तांबा यहीं से ले जाया जाता था इसलिए इसे ‘‘पुरातत्व का पुष्कर‘‘ कहा जाता हैं।  विशेष- पोमचा- पोमचा का रंग पीला होता हैं, तथा इसको नवविवाहित वधू ओढ़ती हैं। खण्डेला की खास विशेषता यह है कि यहाँ का गोटा प्रसिद्ध हैं जिसके प्रकार लप्पा, लप्पी, किरण व बांकड़ी हैं। गोटा मुख्यतया पीला-पोमचा नामक ओढ़नी पर लगता हैं, इस ओढ़नी का सर्वाधिक प्रयोग जाट महिलाएं करती हैं। पीला पोमचा शेखावाटी का प्रसिद्ध हैं तथा पीला पोमचा बनाने वाला समुदाय रंगरेज/नीलगर/लीलगर कहलाता हैं। पीला पोमचा को बेचने वाला बिसाईती कहलाता हैं। कान्तली/कान्टली नदी का उद्गम खण्डेला की पहाड़ी (रैवासा- सीकर) से होता हैं, इस नदी का बहाव क्षेत्र तोरावाटी कहलाता हैं। इसे मौसमी नदी भी कहा जाता हैं तथा इस नदी की लम्बाई 100 कि.मी. हैं। यह नदी राजस्थान में पूर्ण बहाव की दृष्टि से सबसे लम्बी आन्तरिक प्रवाह की नदी हैं। यह नदी झुंझुनू को दो बराबर भागों में बांटती हुई चुरू की सीमा पर लुप्त हो जाती हैं। पीला- पीला का रंग केसरिया होता हैं, तथा बच्चे के जन्म के बाद प्रथम बार यह पीहर पक्ष द्वारा भेजने की परम्परा हैं इसको ओढ़कर जलवा पूजन/कुंआ पूजन किया जाता हैं।

बैराठ सभ्यता- (जयपुर)

  • बैराठ को प्राचीन युग की चित्रशाला व अलवर का सिंह द्वार कहा जाता हैं। यहाँ पर बीजक, भोमली, महादेव, गणेश तथा भीम की पहाड़ियां स्थित हैं, इन पहाड़ियों के बीच मत्स्य जनपद का विकास हुआ इस जनपद की राजधानी विराटनगर थी तथा इसी विराटनगर का वर्तमान नाम बैराठ हैं। बैराठ की जानकारी महाभारत से मिलती हैं राजा विराट के पास पाण्डवों ने अज्ञातवास गुजारा था। बैराठ की खोज 1937 ई. में दयाराम साहनी ने की थी।

बैराठ सभ्‍यता से जुड़े अन्‍य महत्‍वपूर्ण तथ्‍य –

  • बैराठ सभ्‍यता से अशोक की आहत/पंचमार्क मुद्राएं मिली हैं, ये मुद्राएं भारत की सबसे प्राचीन मुद्राएं हैं। यहाँ पर विदेशियों का अधिकार था, यहाँ पर हूण शासक तोमरण व मिहिरकुल का अधिकार था, इसके अलावा यूनानी शासक मीण्डार की मुद्राएं सूती कपड़े में लपेटी हुई थी, इन मुद्राओं को इण्डोग्रीक मुद्राएं कहा जाता हैं। बैराठ में जयपुर के राजा रामसिंह के काल में खुदाई के दौरान स्वर्ण मंजूषा (कलश) प्राप्त हुआ, जिसमें भगवान बुद्ध की अस्थियों के अवशेष थे। भारत में पहली बार शिलालेख चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने लगवाये थे। अशोक ने शिलालेख लगाने की प्रेरणा ईरानी राजा दारा प्रथम से ली थी । बैराठ से अशोक का भाब्रू शिलालेख मिला हैं। भाब्रू शिलालेख की खोज 1834 में कैप्टन बर्ट ने की थी यह शिलालेख अशोक का सबसे लम्बा शिलालेख हैं तथा इस शिलालेख की लिपि ब्राह्मी हैं, इस शिलालेख को त्रिरत्न शिलालेख के नाम से भी जाना जाता है, जिस पर बुद्ध, धम्म व संघ लिखा हुआ है। बैराठ राजस्थान में बौद्ध धर्म का सबसे प्राचीन केन्द्र हैं। बैराठ अर्जुन गंगा/बाण गंगा/ताला नदी/तीर गंगा नदी के किनारे स्थित हैं। उत्‍तर भारत के चन्द्रगुप्त मौर्य ने गुरू चाणक्य की सहायता से बैराठ पर अधिकार किया। चाणक्य/कौटिल्य/विष्णुगुप्त तक्षशिला (पाकिस्तान) का निवासी था। भाब्र्रू्रू शिलालेख में अशोक ने स्वयं को मगध का राजा कहा हैं तथा गौ हत्या पर प्रतिबन्ध का उल्लेख भी इसी शिलालेख में मिलता हैं। इस शिलालेख को वर्तमान में कोलकता संग्रहालय में रखा गया हैं। अशोक ने यहाँ पर बौद्ध स्तूप/बौद्ध मठ/बौद्ध विहार बनवाये थे। बैराठ से महात्मा बुद्ध की प्रतिमा मिली हैं जो भारत की प्रथम मानव ज्ञात प्रतिमा हैं। बैराठ सभ्‍यता से मुगल गार्डन, मुगल दरवाजा भी मिले हैं। यहाँ के भवनों की ईंटें मोहनजोदड़ो की ईंटों के समान हैं। यहाँ से काफी मात्रा में मृदभाण्ड मिले हैं, जिन पर स्वास्तिक व त्रिरत्न के चित्र मिले हैं। बैराठ की यात्रा चीनी यात्री ह्नेनसांग ने की थी इसके उपनाम ‘‘शाक्य मुनि/तीर्थयात्रियों का राजकुमार/ नीति का पण्डित’’ है। बैराठ सभ्‍यता से 1999 ई. में बीजक की पहाड़ी से बौद्ध मन्दिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं, मन्दिर के अवशेष भारत में पहली बार यहीं से ही प्राप्त हुए हैं। यहाँ से महाभारत कालीन बावड़ियां बड़नगर, आसपुर, भूरी, भैंसलाना प्राप्त हई हैं। राजा विराट की कुलदेवी मनसा माता थी, इस माता का मन्दिर पापड़ी ग्राम में मिला हैं। विराटनगर से मुगलकालीन ईदगाह व सिक्के ढ़ालने की टकसालें मिली हैं जिनको अकबर ने स्थापित की थी। जहांगीर व शाहजांह के समय यहाँ पर तांबे के सिक्के ढ़ाले जाते थे। विशेष- ह्नेनसांग 629ई. में भारत के शासक हर्षवर्धन के काल में चीन से भारत आया था, ह्नेनसांग 629ई. से 645ई. तक भारत में रहा था। ह्नेनसांग ने नालन्दा विश्वiविद्यालय में बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी। ह्नेनसांग के समय नालन्दा विश्वकविद्यालय का कुलपति शीलभद्र था। ह्नेनसांग का ग्रन्थ सी.यू.की. हैं, ह्नेनसांग की जीवनी हुई ली ने लिखी थी। ह्नेनसांग ने राजस्थान में भीनमाल (जालौर) व बैराठ (जयपुर) की यात्रा की थी। चीनी यात्रियों ने भारत को तिचिन चु कहा हैं। चाणक्य के ग्रन्थ का नाम अर्थशास्त्र हैं, जिसमें 9 प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया हैं।
  • आहड़ सभ्यता – (उदयपुर)
    • आहड़ सभ्यता का विकास आयड़/बेड़च नदी के किनारे हुआ तथा इस सभ्यता की खोज 1953 ई. में अक्षय कीर्ति व्यास ने की थी और इसके उत्खनन का कार्य 1955-56 में रतनचन्द्र अग्रवाल तथा सर्वाधिक उत्खनन 1961 ई. में प्रोफेसर धीरजलाल सांकलिया (पूना विवि का प्रोफेसर) ने किया था। आहड़ सभ्यता 1800 ई. पू. से 1200 ई.पू. के मध्य की मानी जाती हैं (लगभग 4000 वर्ष पुरानी)। आहड़ का प्राचीन नाम/स्थानीय नाम धूलकोट हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ होता हैं- रेत का टीला।आहड़ सभ्‍यता से मिले अन्‍य महत्वपूर्ण अवशेष
    • यहाँ से धान के अवशेष, पूजा की थाली, त्रिशुल, उल्टी तपाई के मृदभाण्ड/बरनी, आटा पीसने की चक्की, सूती कपड़ों पर छपाई- ठप्पा प्रिन्ट व दाबू प्रिन्ट, पक्की हुई मिट्टी की मणिक, तांबे की कुल्हाड़ी, अंगूठियां, चूड़ियां तथा पाषाणकालीन उपकरण (छीलने, छेद करने, काटने) के अवशेष मिले हैं। यह स्थल पत्थर के उपकरण बनाने का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ से 6 तांबे की मुद्राएं व 3 मुहरें मिली हैं एक मुद्रा पर एक तरफ त्रिशुल अंकित हैं तथा दूसरी ओर ग्रीक देवता अपोलो को खड़ा दिखाया गया हैं, जिसके हाथों में तीर व तरकश हैं और इस मुद्रा पर यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुआ हैं इस मुद्रा को यूनानी मुद्रा माना जाता हैं। यह एक संयुक्त परिवार प्रणाली, पितृसतात्मक, ग्रामीण तथा ताम्रनगरी सभ्यता थी। यहाँ से कॉफी मात्रा में तांबे की वस्तुएं मिली थी इसलिए इसे ताम्रनगरी सभ्यता कहते हैं। यहाँ से तांबे को गलाने की भट्टी भी मिली हैं। यहाँ के मकानों में मुलायम काले पत्थरों तथा धूप में सुखाई गयी कच्ची ईंटों का भी प्रयोग हुआ हैं। इस सभ्यता से अन्न के भण्डार/अनाज के कोठरे/अनाज के गारे/ओबरी के अवशेष मिले हैं। यहाँ से लाल व काले मिट्टी के बर्तन मिले हैं इसलिए इसे लाल, काले मृदभाण्ड वाली सभ्यता भी कहते हैं। आहड़वासी चावल, कुता, हाथी, गेंढ़ा से परिचित थे। यहाँ के मृतकों को आभूषणों व वस्त्रों के साथ ही दफनाया जाता था। यहाँ से एक साथ छः चूल्हों के अवशेष मिले हैं। यहाँ से मिट्टी से बनी हुई बैल/वृषभ की आकृति मिली हैं इसको ‘‘बनासियल’’ की संज्ञा दी गई हैं। विशेष- धोली मगरी (उदयपुर) तथा ओझियाना (भीलवाड़ा) से भी आहड़ सभ्यता के अवशेष मिले हैं। उदयपुर की स्थापना 1559 ई. में उदयसिंह ने की थी, राजस्थान में पहली बार 1895 में तारघर की स्थापना भी यहीं हुई थी। उदयसिंह ने उदयसागर झील का निर्माण करवाया था। आयड़ नदी का उद्गम गोगुन्दा की पहाड़ियों से होता हैं यह नदी उदयसागर झील तक आयड़ तथा इस झील के बाद बेड़च के नाम से जानी जाती हैं।
    • रंगमहल- हनुमानगढ़ – यहाँ से गुरू शिष्य की मूर्ति मिली है तथा यहाँ से 105 तांबे की मुद्राएं मिली हैं। यहाँ की गुप्तकालीन मृण्मूर्तियों में शिव व पार्वती का भी अंकन हुआ हैं। यह क्षेत्र प्रस्तर युगीन एवं प्रस्तर धातु युगीन संस्कृति की विशेषताओं को परिलक्षित करता हैं।
  • नोह- रूपारेल नदी, भरतपुर – यहाँ पर महाभारत से लेकर शक सातवाहन तक की 5 संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। यहाँ से स्वास्तिक चिन्ह (मिट्टी के पात्र पर) तथा पक्षी चित्रित ईंट भी मिली हैं। यहाँ से जोख बाबा की मूर्ति भी मिली हैं। यह राजस्थान का एकमात्र ऐसा स्थान हैं जहां पर ताम्रयुगीन, आर्यकालीन व महाभारतकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहाँ से पाप हतस अंकन वाली मुद्रा प्राप्त हुई हैं।
  • माण्डव्यपुर – (जोधपुर) – माण्डव्यपुर का वर्तमान नाम मण्डोर हैं, मण्डोर की जानकारी रामायण से मिलती हैं। रामायण की रचना वाल्मिकी ने की थी तथा रामायण का राजस्थानी में अनुवाद हनुवंत सिंह किंकर ने किया। मण्डोर से रावण की चंवरी मिली हैं। रावण का ससुराल मण्डोर में था, रावण का विवाह मन्दोदरी से हुआ था। दशहरा शोक पर्व के रूप में मारवाड़ में मनाया जाता हैं। दशहरा अश्विन शुक्ल दशमी को मनाया हैं तथा दशहरे के अवसर पर मदील पगड़ी पहनी जाती हैं। इस अवसर पर लीलटांस पक्षी का दिखाई देना शुभ माना जाता तथा इस दिन खेजड़ी वृक्ष की पूजा की जाती हैं। विशेष तथ्‍य – जोधपुर में सर्वप्रथम सरकारी डाकघर की स्थापना 1839 में हुई, मण्डोर की स्थापना प्रतिहार शासक हरिषचन्द्र ने की थी। मण्डोर में राष्ट्रीय विधि विश्वकविद्यालय हैं। मण्डोर में 18 भुजाओं की नागणेची माता का मन्दिर हैं, यह माता जोधपुर के राठौड़ों की कुलदेवी हैं। ’’जोधपुर के राठौड़ों’’ की छतरियां भी यहीं हैं। यहाँ पर 33 करोड़ देवी- देवताओं की मूर्ति स्थापित हैं।
  • बागौर- कोठारी नदी, (भीलवाड़ा) – यहाँ से भारत के प्राचीनतम पशु-पालन के अवशेष मिले हैं, बागौर से मध्यपाषाण काल के अवशेष मिले हैं। बागौर को आदिम संस्कृति का संग्रहालय भी कहा जाता हैं। यहाँ पर महासतियों का टीला मिला हैं। यह भारत की सबसे सम्पन्न पाषाणीय सभ्यता थी।
  • गिलूण्ड- बनास नदी – राजसमन्द, यह एक ताम्रयुगीन सभ्यता थी। यहाँ से उच्चस्तरीय जमाव में क्रीम रंग व काले रंग से चित्रित पात्रों पर चिकतेदार हरिण के साक्ष्य भी मिले हैं।
  • कुराड़ा- परबतसर, (नागौर) – यहाँ से तांबे के औजार मिले हैं, यहाँ पर प्रणालयुक्त अध्र्यपात्र भी मिले हैं, इनका सम्बन्ध विशेषतः ईरान से था। यहाँ पर राजस्थान राज्य के पुर्नगठन से पहले सर्वप्रथम 1934 में ताम्र सामग्री मिली हैं।
  • बालाथल- उदयपुर – इसकी खोज 1993 में बी. एन. मिश्र ने की थी। यहाँ से पशुपालन, कृषि, शिकार के साक्ष्य तथा तांबे के आभूषण मिले हैं। यह एक मिश्रित अर्थव्यवस्था थी। यहाँ की ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति एक विकसित संस्कृति थी।
  • गरदड़ा- बूंदी – यह छाजा नदी के किनारे स्थित हैं, यहाँ से शैलचित्र या रॉक पेंटिग व बर्ड राइडिंग ऑन द रॉक (चट्टानों पर उड़ते हुए पक्षी), मिले हैं। विशेष तथ्‍य – नागौर को औजारों की नगरी कहते है।
  • बरोर- गंगानगर – इस सभ्यता को प्राक्, प्रारंभिक एवं विकसित हड़प्पा काल में बांटा जा सकता हैं। यहाँ के मिट्टी के बर्तनों में काली मिट्टी पाई गई हैं।
  • रैढ़ – ढ़ील नदी, टोंक – यहाँ से मातृदेवी व गजमुखी यक्ष की मूर्ति मिली हैं। यहाँ से एशिया का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार मिला हैं, इसलिए रैढ़ को टाटानगर के नाम से जाना जाता हैं।
  • भादरा- हनुमानगढ़ – यह हड़प्पा समकालीन स्थल हैं, भादरा के करनपुरा में 8 जनवरी 2013 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को 4500 वर्ष पुराना मानव कंकाल मिला हैं।
  • जोधपुरा- साबी नदी, जयपुर – यह जयपुर-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित हैं, यहाँ से पाषाण के मनके तथा हाथी दांत के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
  • नैनवा- बूंदी – यहाँ पर सर्वप्रथम उत्खनन श्रीकृष्णदेव ने करवाया, यहाँ से महिशासुर मर्दिनी की मिट्टी की मूर्ति मिली हैं।
  • किरोड़ोत- जयपुर – यहाँ से 28 प्रकार की तांबे की चूड़ियां मिली थी। यहाँ से एक कांस्य युगीन नृत्यांग्ना की मूर्ति मिली हैं।
  • ईसवाल- उदयपुर – यहाँ से लौहे कालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं, यहाँ से ऊंट के दांत के अवशेष मिले हैं।
  • तिलवाड़ा- (बाड़मेर) – यह लूणी नदी के किनारे स्थित है तथा यहाँ से पशुपालन के अवशेष मिले हैं।
  • बयाना- भरतपुर – यहाँ से गुप्तकालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं, बयाना नील की खेती के लिए प्रसिद्ध था।
  • मालपुरा- झालावाड़ – यहाँ से मिली कोलवी की गुफा बौद्ध धर्म का केन्द्र हैं।
  • दर- भरतपुर – इस स्थान पर पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
  • बांका- भीलवाड़ा – यहाँ से राजस्थान की प्रथम अलंकृत गुफा मिली हैं।
  • बरबाला- पाली – यहाँ से जीवन्त स्वामी/महावीर स्वामी की धातु की मूर्ति मिली हैं।
  • नगरी- चितौड़ – भारत के सबसे प्राचीन वैष्णव मन्दिर के अवशेष यहीं से मिले हैं।
  • जहाजपुरा- भीलवाड़ा – यहाँ से भी महाभारत कालीन अवशेष मिले हैं।
  • खुड़ी – नागौर – यहाँ से हमें नालीदार टोंटी का कटोरा प्राप्त हुआ हैं।
  • कुण्डा/पोरवार/सोनू- जैसलमेर – यहाँ से प्राचीनतम चूहे के दांत के जीवाष्म मिले हैं।
  • गुरारा सभ्यता- सीकर – यहाँ से 2744 चांदी के पंचमार्क सिक्के प्राप्त हुए हैं।
  • सुनारी- झंझुनू – यहाँ से लौहे को गलाने की भट्टी तथा लौहे का प्याला मिला हैं।
  • भीनमाल- जालौर – यहाँ से मिट्टी के बर्तनों पर एम्पोरा (रोमन) के साक्ष्य मिले हैं।
  • ओला- जैसलमेर – यहाँ से पाषाणकालीन कुल्हाड़ी के साक्ष्य मिले हैं।
  • सोथी- (बीकानेर) – इसे कालीबंगा प्रथम कहते हैं।
  • पीलीबंगा – हनुमानगढ़ – यहाँ से ईंटों का कुंआ मिला है।
  • लोद्रवा- (जैसलमेर) – यह हड़प्पा समकालीन स्थल हैं।
  • राजस्थान के जिलों में स्थित प्रमुख सभ्यताएं
  • चितौड़गढ़ – नगरी, शिवी, माध्यमिका, पीण्डपालिया,नदी की घाटी
  • धौलपुर – खानपुरा
  • बाड़मेर – तिलवाड़ा
  • जालौर – ऐलाना, भीनमाल
  • सिरोही – चन्द्रावती
  • गंगानगर – अनूपगढ़, तरखानवाला, चक 84
  • बीकानेर – सांवलिया, पूगल, सोथी, डाडाथोरा
  • जैसलमेर – लोद्रवा, ओला, कुड़ा
  • उदयपुर – आहड़, बालाथल, ईषवाल, झाड़ौल, वल्लभनगर
  • बांसवाड़ा – चन्द्रावली
  • भरतपुर – दर, नोह, बयाना, श्रीपंथ
  • अलवर – डडीकर
  • भीलवाड़ा – बागौर, ओझीयाना, जहाजपुरा
  • कोटा – दर्रा, आलनिया, तीपटिया
  • सवाईमाधोपुर – कोलमहोली
  • हनुमानगढ़ – रंगमहल, पीलीबंगा, कालीबंगा, भादरा
  • जोधपुर – मण्डोर, बिलाड़ा, उम्मेदनगर
  • जयपुर – बैराठ, जोधपुरा, चीथवाड़ी, नन्दलालपुरा, सांभर (नलियासर)
  • सीकर – गुरारा, गणेश्वर, सोहगरा
  • झुंझुनू – सुनारी
  • टोंक – रेढ़, नगर, मालव, कंकोड़
  • दौसा – बसवा
  • पाली – नाडोल
  • राजसमन्द – गिलूण्ड
  • बून्दी – गरदड़ा, नैनवा, इन्द्रगढ़
  • नागौर – डीडवाना, कुराड़ा, जायल, खुड़ी।
  • अजमेर – बूढ़ा पुष्कर
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